Friday, August 10, 2012

असफल आन्दोलन व राजनीतिक शून्यता

 
असफल आन्दोलन व राजनीतिक शून्यता   
जब लोकतंत्र, जो कि निरपेक्ष व्यक्तिवाद पर ही खड़ा हैं, अपने पतन काल में हों तब वह स्वयं घोर व्यक्तिवादी राजनीति की तरफ बढ़ता हैं. इस अवस्था में अगर जनता स्वयं विकल्प देने की स्थति में ना हो तब वह अपने सामुहिक सामाजिकता के अंतर्विरोधों के अंतर्निहित चरित्र के तहत निरपेक्ष व्यक्तिवादी राजनीति से विमुख हो जाती हैं. एक तरह से देखा जाय तो जनता में सामुहिक निराशा व अवसाद बढ़ जाता हैं.इस निराशा के दोर में लोकतंत्र भी अपने पतनशील मूल्यों के सहारे फिर अपनी ताकत से जनता के सबसे मजबूत आधार तक का दुरूपयोग करने की कोशिश करता हैं. वह अपने विरुद्ध उभरते असंतोष को भटकाने के लिये फिर उसी का सहारा लेता हैं जिन पर जनता विशवास कर सकती हो. वह देशी व विदेशी पूंजी व उसी के संसाधनों से गैर-राजनीति के नाम पर पंथ, मजहब, सम्प्रदाय, संस्कृति के प्रतीकों आदि का सहारा लेकर घोर व्यक्तिवादी राजनीति को उभारता हैं. बाबा रामदेव व अन्ना हजारे के नेतृत्व के आंदोलनों के पीछे कि सच्चाई भी यही हैं.
भारत में लंबे समय से राजनीतिक
शून्यता का दौर चल रहा हैं. इस देश में सामाजिक-सांस्कृतिक विभिन्नता के चलते लगभग १०० पार्टियां अस्तित्व में आ चुकी हैं. केन्द्र व राज्यों के शासन काल में निरंतर जारी जन-विरोधी सामाजिक-आर्थिक नीतियों से मजदूर, किसान व मध्यम वर्ग बेगाना होकर दिशाहीनता की तरफ बढ़ रहा हैं. यह परिस्थितियों देश में काम कर रहें NGO's व स्वयंसेवी संस्थाएँ, दान व चंदे से चलने वाले ट्रस्ट भी जानते हैं. कुछेक NGO's तो विदेशी धन से विभिन्न कार्य क्षेत्रो में अपने आपको गेर-राजनेतिक कह कर जनता कि समस्याए उठाते रहें हैं. ऐसे NGO's तथा इन्हें धन उपलब्ध कराने वाले संस्थान व स्वयं सरकारें जानती हैं कि ये लोग राजनीति व शुद्ध रूप से राजनेतिक कार्य ही कर रहें हैं ! इसी तरह से स्वयंसेवी संस्थाएँ, दान व चंदे से चलने वाले ट्रस्ट भी गैर -राजनीति कि ही व्यक्तिवादी राजनीति करते हैं. जितना सामाजिक-आर्थिक संकट गहराता जाता हैं तब बिना सक्षम नेतृत्व व मूल अंतर्विरोधों को पहचाने उतना ही राजनेतिक संकट भी गहराता जाता हैं. 
आज अब आजादी के ६५ वर्षो के बाद इसी के परिणाम स्वरूप विभिन्न राज्यों में परिवार व व्यक्ति केंद्रित राजनीति मजबूत हुयी व सत्ताशीन हैं. एक नजर से हम सभी राज्यों पर नजर दोड़ा ले तो पता चल जाता हैं ! एक हारता तो दूसरा दल फिर सत्ता में आ जाता हैं. जनता दे नहीं सकी तो वह सामुहिक सामाजिकता के अंतर्विरोधों के तहत ही परिवार व निरपेक्ष व्यक्तिवादी राजनीति से विमुख हो गई . यही राजनेतिक शून्यता हैं !
यह राजनेतिक
शून्यता ही कारण थी जिसने ही रामदेव व अन्ना को राजनीति करने का आसान रास्ता दिया . अगर सारांश रूप में हम देखें तो पाते हैं कि बाबा रामदेव व अन्ना हजारे गैर-राजनीतिक के नाम पर राजनीति ही तो कर रहें हैं. इसकी स्वाभाविक परिणति पुनह जनता में घोर निराशा व अवसाद के रूप में होती हैं. यह घोर व्यक्तिवाद की राजनीति ही जनता को राजनीति से विमुख करके घोर तानाशाही कि तरफ ले जाती हैं. उस अवस्था में निराह भोतिकवादियो का लगातार जारी शोषण एक स्वीकृत लूट में बदलकर ''तानाशाह'' को उभारता हैं. वह लोकतंत्रवादियों व पूँजीपतियों का खुला सरंक्षणदाता बन बैठता हैं व जनता का खुला दुश्मन. आगे की परिणिति भी आप जानते ही हैं !

 

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