Sunday, September 2, 2012

केग के अनुसार लगभग २ लाख करोड़ रूपये का घोटाला कोयला ब्लोक के आबंटन में हुवा हैं.


लगभग २ लाख करोड़ रूपये का घोटाला कोयला ब्लोक के आबंटन में हुवा हैं. इसका आंकलन केग ने सबकुछ छानबीन करके ही किया हैं. केग कि निष्पक्ष हैं आ उसकी भूमिका भी संदिग्ध नहीं हैं. सारे विभाग उसकि जाँच के दायरे में आते हैं. 


अब सरकार कहती हैं कि संसद चलनी चाहिए ! क्योंकि सरकार संसद में वार्ता व स्पष्टीकरक देना चाहती हैं. यह रास्ता बच के निकलने का ही हैं. यानी कि जो बाते सरकार अपने स्पष्टीकरण में रखे फिर उस पर वार्ता हो व मूल मुधा घोटाला होने का गोण जाय . इसका क्या यह मतलब नहीं हैं कि केग कि जाँच पड़ताल व छानबीन को ही पलीता लगा दिया जाय ? 


संसद, न्यायपालिक अपनी जगह पर सर्वोपरि हैं पर क्या कार्यपालिक बिल्कुल ही गोण हैं? उसकी अपनी भूमिका संविधान ने तय कर रखी हैं तब इस तरह के विरोधाभाष को सरकार द्वारा उभारना क्या यह नहीं बताता कि वह लोकतन्त्र को रसातल में जाने से रोकने में असमर्थ हैं. 


२४.८.१२ को केन्द्रीय मंत्री चिदम्बरम साहब कि तरफ से बयान आया कि सरकार को नुकसान केसे हो गया अभी तो कोयला ब्लोक आबंटन के बाद उन पर खनन कार्य भी नहीं शुरू हुवा . इस बार चिदम्बरम साहब बोलते हैं कि जब खाद्नों से कोयला निकाला ही नहीं गया तब देश को कोल ब्लोक आबंटन में जीरो नुकसान हुवा . पिछली बार 2 जी मामले में कपिल सिंबल साहब ने भी जीरो नुकसान होना बताया था. बाद में क्या हुवा ? यह सबसे छुपा हुवा भी नहीं रहा. उस घटना से सरकार ने ना तो सबक लिया हैं व ना ही लोकतांत्रिक नेतिकता का पालन कर रही हैं.  दोनों घोटालों में एक साधन गत चरित्र का मूल अंतर हें. 

()2g घोटाला अलग किस्म का हैं तथा वह तो आकाश का अनजाना खजाना था जो कि कभी समाप्त भी नहीं होगा.

() कोयला घोटाला प्राक्रतिक - भोतिक संसाधनों कि वह लुट हें जिसका पुनह भरण नहीं हो सकता हैं.

यह तो प्राक्रतिक-भोतिक सीमित संसाधन को कोड़ियो के भाव लुटाना हुवा . जिस आबंटन को ही केग गलत व प्रक्रियागत सोची समझी गलती बता रही हो तो आगे के सारे जवाब फीके ही हें. सरकारें खान, नदी, भू-जल, पर्वत, जंगल व जमीन के दोहन के लिए अवैध तरीके से बहुत छूट देती हैं, जिससे इन कारोबारों मे लगे व्यावसायियों को अरबों रूपये का मुनाफा होता है. वास्तव में आबंटन व ठेके लेने वाली अधिकांश कम्पनियां कागजी होती हैं तथा इनमे किस्म किस्म के दलाल नेताओ, पूंजीपतियों व बाहुबलियों के होते हैं. इनमे से अधिकांश संसाधनों कि लुट कि पुनह भरपायी नहीं हो पति हें, कोयला भी उनमे से एक हें. कोयला कांड में तो आबंटन हुवा हैं और नीलामी भी नहीं तब आबंटन केसे हो सकते हैं हम भ्रष्टव्यवस्था को देख व समझकर केवल अनुमान ही लगा सकते. केग ने तो दस्तावेजो सहित आंकलन करके ही रिपोर्ट दि हें तथा उसकी दरे भी वही रखी जो कि सरकारी थी . 


क्या भारत के लोग यह समझने में भी असमर्थ हैं कि घोटाला ब्लोक के आबंटन का हैं या उस पर खनन का? साधारण किसान भी बता देगा कि जमीन बेचने पर उसमे खेती हो या ना हो जमीन तो बिक चुकी हैं. अब मालिक जब मर्जी हो तब खेती करे या उसे बेचे ! इतने गंभीर मामले को जब सरकार के मंत्री पहले ही इतना हल्का में ले रहें हैं व बेतुकि बाते कर रहें तो संसद में आखिर ये कहना क्या चाहते हैं उसका आभास तो हो ही गया हैं. 

प्रधानमंत्री ने संसद में अपने शायराना अंदाज में खा कि, '' हज़ारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशीन जाने कितने सवालों की आबरू रखी''. इसका मतलब सीधा सा तो यही निकलता हें कि जो लोग सवाल पूछ रहे थे मेने तो अब तक नहीं बोलकर उन सवालों कि अबरू रखी हैं.

  प्रधानमंत्री स्तीफा के स्तीफे के बढ़ मध्यावती चुनाव होने पर कांग्रेस व भाजपा का बिलकुल अलग अलग व विपरीत आंकलन भी हो सकता हें. 

 (i)भाजपा सोच रही होगी कि यही वह समय हें जब सरकार को घेर कर स्तीफा देने के लिए मजबूर करे ताकि गुजर के चुनाव के साथ इसे भी जीता जा सके. साम्प्रदायिक जहर उगलने में भाजपा सबसे आगे हें तथा वह इसे भुना सकती हें. बड़े ताजुब कि बात हें कि इन्हें ह्सर्म कि बजाय इसमें गर्व होता हें ! 

(ii)वंही दूसरी तरफ सरकार ने सब कुछ शायद तय कर रखा हो कि पूरी जदोजहद के बाद में प्रधानमंत्री स्तीफा दे व बाद में राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाकर संसद में हार जाय ताकि गुजरात के साथ मध्यावधि चुनाव हो जाय . कांग्रेस के लिये अन्ना व बाबा रामदेव आन्दोलन ने लगभग २ वर्ष तक वह सब कुछ कर दिया जिससे विपक्ष मजबूत नहीं हो सका. रही सही कसर सरकार ने जातिवाद व साम्प्रदायिकता बढाकर पूरी कर दि . आज कि परिस्थितियों में दलित व अल्पसंख्यक वर्ग का धुर्वीकरण कांग्रेस के पक्ष में वेसे ही होता लग रहा हैं. 


गुजरात के साथ मध्यावधि चुनाव कराने से कांग्रेस को साफ़ फायदा भी दिखता हैं कि मोदी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं बन सकेंगे व बड़ी पार्टी भी कांग्रेस ही उभरेगी !

Saturday, September 1, 2012

कोयला घोटाले में पहले प्रधानमंत्री का स्तीफा व पुरे कोल ब्लाक आवंटन रद्द हो .

कोयला घोटाले में पहले प्रधानमंत्री का स्तीफा व 142 कोल ब्लाक आवंटन रद्द हो फिर संसद बेठे . तबतक जनता व उसका साथ देने वाली पार्टियाँ सड़कों पर संघर्ष करती हें तो सबसे अच्छा कदम यही हें. अबब तक भाजपा व अन्य कोई भी पार्टी संसद का बहिष्कार करती
 हें तो जायज व लाजमी ही हें.

सरकार केवल संसद में वार्ता कि बात करके बच नहीं सकती हें. केग ने तो पहले ही दस्ताजों के आधार पर आंकलन करके रिपोर्ट तेयार कि हें अब अगर सरकार कोई नये तथ्य बताना चाहती हें, जिसकी जानकारी जरुरी हें, तो देश कि जनता के सामने भी वो अपना पक्ष रखे व बताएं . केवल संसद में बहस का बहाना करना यह बताता हें कि विपक्ष व जनता को वह मूल मुधे से भटकाना चाहती हें. वेसे तो उसकी नेतिक मर्यादा व आचारण रसातल पर पहुँच चुके हें हाँ इतना तो उसे याद होगा कि 2g स्पेक्ट्रम घोटाले में विगत वर्ष में राजा से स्तीफा ले लिया गया था. अब प्रधानमंत्री स्वयं पीछे क्यों हट रहें हें?

मुलायम सिंह ने कोयला विवाद की न्यायिक जांच करने का सुझाव दिया है और कुच्छ अन्य दल भी उनका साथ दे रहें हें. इस कदम से फिर अवसरवादीता कि बू आ रही हें ! यह सब बाद कि बाते हें जब वास्तव में लगे कि सरकार ने ऐसा कोई गंभीर घोटाला नहीँ किया. मगर इस प्रकरण में तो सरकार प्रथम धर्ष्टीय दोषी नजर आती हें . आंबटन के नाम पर खनन संपदा कि इस तरह बंदरबांट हवी हें जो किसी से छिपी नहीं रही. न्यायिक जाँच से पहले देश कि जनता के प्रति सरकार कि जवाब्दाही बनती हें कि वह सब खुलासा करे . देखा जाय तो सरकार स्वयं इसे जनता कि चोपाल में बहस के लिए आने नहीं देना चाह रही हें. वह जानबुझकर इस घोटाले को उलझाना चाहती हें. उसे यह पता हें कि स्तीफा देने के बाद वही दुर्गति होनी हें जो कि 2g स्पेक्ट्रम घोटाले में हवी थी. सरकार के मंत्रियो को दिखता हें कि कोयले में तो उनके मुंह कभी के काले हुवे थे तथा अब वे जनता को ना दिखे अतः प्रधानमंत्री स्तीफे से बच रहें हें.

मुलायम सिंह व अन्य दलों कि न्यायिक जाँच कि मांग सरकार को भी रास आती हें क्योंकि यह एक लम्बी व उबाऊ प्रक्रिया होती हें. इससे पहले तो सरकार स्वयं घोटाले से बच निकलती हें . यह वही मुलायम हें जिन्होंने पिछली बार परमाणु समझोते पर गिरती हुवी सरकार को दलाली करके बचाया था . उस वक्त सरकार को गिराने वाले भी इस बार मुलायम के साथ हें !
  


मुलायम जेसे गिरगिटों को कितनी बार साथ लेने या साथ यो जाने कि फोरी राजनेतिक कार्यनीति पर चलकर इस देश के ये क्रांतिकारी व परिवर्तनकारी दल व संगठन अपनी लोकतान्त्रिक या जनवादी रणनीति से किस कदर दूर जा रहें हें वास्तव में इन्हें अब पता भी नहीं होगा . शायद कार्यकर्ता अब तो उनसे सवाल भी नहीं पूछ्तें होंगे कि अब संगठन क्यों नहीं बना पा रहें हें .


Sunday, August 19, 2012

लोकतान्त्रिक प्रणाली व वैकल्पिक जीवन शैली के द्वन्द व चिंतन

Photo: लोकतान्त्रिक प्रणाली तो किसी भी रूप में पतन कि तरफ ले जाने वाला रास्ता. वैकल्पिक ऊर्जा : - आज के स्थापित समाजवादी, मार्क्सवादी, कमुनिस्ट व ग्रीन पीस आदि आन्दोलन व विचार, सोच, चिंतन, सिद्धांत, व्यवहार पूंजीवादी व्यवस्था के विरोध के नाम व रूप में एक तरफ वैकल्पिक स्रजनशील जीवन शेली के क्रमिक द्वन्द्ध को कमजोर करते हैं वंही दुसरी तरफ वर्तमान मूल सामाजिक अंतर्विरोध को पहचान करने से भटकाते हैं. 
स्थापित समाजवादी व्यवस्था कि अपनी कोई जीवन शेली नहीं हैं. वे लोकतन्त्र को ही मूल आधार मानते हैं तो ऊर्जा पर निर्भरता को केसे नकार सकते हैं ? हाँ साम्राज्यवादी लोकतांत्रिक देश वैकल्पिक ऊर्जा को अपना सकते हैं जिनकी निराह भोतिकवादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता अन्य कमजोर देशों कि लूट व शोषण पर आधारित हैं. उनकी तकनीकि विकास कि गति व शोध भी कमजोर, अल्प विकसित व विकासशील देशों तथा अपने देशों कि जनता को भ्रमित कर हासिल कि गई हैं. वे दुसरे देशों को प्रक्रति व परिवेशिकी को नष्ट करने वाले 'विकास के मोडल' कि तरफ आकर्षित व प्रोत्साहित भी कर रहें व वैकल्पिक जीवन शेली के द्वन्द्ध व चिंतन को कमजोर करके पतनशील 'विकास के मोडल' को अपनाने के लिये बाध्य व विवश भी करते रहें हैं. 

जब तक लोकतांत्रिक प्रणाली, जों कि विनाश व पतन का रास्ता हैं, के मूल अंतरविरोध को नहीं पहचाना जा सकतातब तक इस तरह के आन्दोलनों को सही दिशा नहीं दी जा सकती हैं. मूल अंतरविरोध को पहचाने बिना वैकल्पिक जीवन शेली व मूल्यों का संघर्ष भटकता रहेगा व भटकाया जाता रहेगा ! 
लोकतान्त्रिक प्रणाली व वैकल्पिक जीवन शैली के द्वन्द व चिंतन
लोकतान्त्रिक प्रणाली तो किसी भी रूप में पतन की तरफ ले जाने वाला रास्ता है. वैकल्पिक ऊर्जा : - आज के स्थापित समाजवादी, मार्क्सवादी, कम्युनिस्ट व ग्रीन पीस आदि आन्दोलन व विचार, सोच, चिंतन, सिद्धांत, व्यवहार पूंजीवादी व्यवस्था के विरोध के नाम व रूप में एक तरफ वैकल्पिक सृजनशील जीवन  शैली के क्रमिक द्वन्द को कमजोर करते हैं वंही दुसरी तरफ वर्तमान मूल सामाजिक अंतर्विरोध को पहचान करने से भटकाते हैं. स्थापित समाजवादी व्यवस्था की अपनी कोई जीवन शैली नहीं हैं. वे लोकतन्त्र को ही मूल आधार मानते हैं तो ऊर्जा पर निर्भरता को कैसे नकार सकते हैं ? हाँ साम्राज्यवादी लोकतांत्रिक देश वैकल्पिक ऊर्जा को अपना सकते हैं जिनकी निरीह भौतिकवादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता अन्य कमजोर देशों की लूट व शोषण पर आधारित हैं. उनकी तकनीकि विकास की गति व शोध भी कमजोर, अल्प विकसित व विकासशील देशों तथा अपने देशों की जनता को भ्रमित कर हासिल की गई हैं. वे दुसरे देशों को प्रकृति व पारिवेशिकी को नष्ट करने वाले 'विकास के मोडल' की  तरफ आकर्षित व प्रोत्साहित भी कर रहें व वैकल्पिक जीवन शैली के द्वन्द व चिंतन को कमजोर करके पतनशील 'विकास के मोडल' को अपनाने के लिये बाध्य व विवश भी करते रहें हैं.
जब तक लोकतांत्रिक प्रणाली, जों कि विनाश व पतन का रास्ता हैं, के मूल अंतरविरोध को नहीं पहचाना जा सकता तब तक इस तरह के आन्दोलनों को सही दिशा नहीं दी जा सकती हैं. मूल अंतरविरोध को पहचाने बिना वैकल्पिक जीवन शैली व मूल्यों का संघर्ष भटकता रहेगा व भटकाया जाता रहेगा !

Friday, August 10, 2012

असफल आन्दोलन व राजनीतिक शून्यता

 
असफल आन्दोलन व राजनीतिक शून्यता   
जब लोकतंत्र, जो कि निरपेक्ष व्यक्तिवाद पर ही खड़ा हैं, अपने पतन काल में हों तब वह स्वयं घोर व्यक्तिवादी राजनीति की तरफ बढ़ता हैं. इस अवस्था में अगर जनता स्वयं विकल्प देने की स्थति में ना हो तब वह अपने सामुहिक सामाजिकता के अंतर्विरोधों के अंतर्निहित चरित्र के तहत निरपेक्ष व्यक्तिवादी राजनीति से विमुख हो जाती हैं. एक तरह से देखा जाय तो जनता में सामुहिक निराशा व अवसाद बढ़ जाता हैं.इस निराशा के दोर में लोकतंत्र भी अपने पतनशील मूल्यों के सहारे फिर अपनी ताकत से जनता के सबसे मजबूत आधार तक का दुरूपयोग करने की कोशिश करता हैं. वह अपने विरुद्ध उभरते असंतोष को भटकाने के लिये फिर उसी का सहारा लेता हैं जिन पर जनता विशवास कर सकती हो. वह देशी व विदेशी पूंजी व उसी के संसाधनों से गैर-राजनीति के नाम पर पंथ, मजहब, सम्प्रदाय, संस्कृति के प्रतीकों आदि का सहारा लेकर घोर व्यक्तिवादी राजनीति को उभारता हैं. बाबा रामदेव व अन्ना हजारे के नेतृत्व के आंदोलनों के पीछे कि सच्चाई भी यही हैं.
भारत में लंबे समय से राजनीतिक
शून्यता का दौर चल रहा हैं. इस देश में सामाजिक-सांस्कृतिक विभिन्नता के चलते लगभग १०० पार्टियां अस्तित्व में आ चुकी हैं. केन्द्र व राज्यों के शासन काल में निरंतर जारी जन-विरोधी सामाजिक-आर्थिक नीतियों से मजदूर, किसान व मध्यम वर्ग बेगाना होकर दिशाहीनता की तरफ बढ़ रहा हैं. यह परिस्थितियों देश में काम कर रहें NGO's व स्वयंसेवी संस्थाएँ, दान व चंदे से चलने वाले ट्रस्ट भी जानते हैं. कुछेक NGO's तो विदेशी धन से विभिन्न कार्य क्षेत्रो में अपने आपको गेर-राजनेतिक कह कर जनता कि समस्याए उठाते रहें हैं. ऐसे NGO's तथा इन्हें धन उपलब्ध कराने वाले संस्थान व स्वयं सरकारें जानती हैं कि ये लोग राजनीति व शुद्ध रूप से राजनेतिक कार्य ही कर रहें हैं ! इसी तरह से स्वयंसेवी संस्थाएँ, दान व चंदे से चलने वाले ट्रस्ट भी गैर -राजनीति कि ही व्यक्तिवादी राजनीति करते हैं. जितना सामाजिक-आर्थिक संकट गहराता जाता हैं तब बिना सक्षम नेतृत्व व मूल अंतर्विरोधों को पहचाने उतना ही राजनेतिक संकट भी गहराता जाता हैं. 
आज अब आजादी के ६५ वर्षो के बाद इसी के परिणाम स्वरूप विभिन्न राज्यों में परिवार व व्यक्ति केंद्रित राजनीति मजबूत हुयी व सत्ताशीन हैं. एक नजर से हम सभी राज्यों पर नजर दोड़ा ले तो पता चल जाता हैं ! एक हारता तो दूसरा दल फिर सत्ता में आ जाता हैं. जनता दे नहीं सकी तो वह सामुहिक सामाजिकता के अंतर्विरोधों के तहत ही परिवार व निरपेक्ष व्यक्तिवादी राजनीति से विमुख हो गई . यही राजनेतिक शून्यता हैं !
यह राजनेतिक
शून्यता ही कारण थी जिसने ही रामदेव व अन्ना को राजनीति करने का आसान रास्ता दिया . अगर सारांश रूप में हम देखें तो पाते हैं कि बाबा रामदेव व अन्ना हजारे गैर-राजनीतिक के नाम पर राजनीति ही तो कर रहें हैं. इसकी स्वाभाविक परिणति पुनह जनता में घोर निराशा व अवसाद के रूप में होती हैं. यह घोर व्यक्तिवाद की राजनीति ही जनता को राजनीति से विमुख करके घोर तानाशाही कि तरफ ले जाती हैं. उस अवस्था में निराह भोतिकवादियो का लगातार जारी शोषण एक स्वीकृत लूट में बदलकर ''तानाशाह'' को उभारता हैं. वह लोकतंत्रवादियों व पूँजीपतियों का खुला सरंक्षणदाता बन बैठता हैं व जनता का खुला दुश्मन. आगे की परिणिति भी आप जानते ही हैं !

 

Saturday, August 4, 2012

कांग्रेस के विकल्प की तलाश: भटकती राहें

कांग्रेस के विकल्प की तलाश: भटकती राहें 
अभी तक लोकसभा चुनाव की घोषणा नहीं हुवी थी व विकल्प भी इस देश कि जनता देती मगर जो कांग्रेस चाहती थी वह शब्द आज जनता के निकल रहें हैं की  आज कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं. मित्रों, इन गैर-राजनीतिकों कि कांग्रेसी राजनीति ने ही पिछले १ माह व ५ माह से विपक्ष कि भूमिका निभाई. यह सब कुछ   कांग्रेस के सहारे व आपसी समझदारी से हुआ. अब अगर इस माह सरकार लोकसभा भंग करके मध्यावती चुनाव गुजरात के विधान सभा चुनावों 
 के साथ कराएं तो बिना दस्तावेज, घोषणा-पत्र, उद्देश्य, लक्ष्य तथा विधान के यह अंधभक्ति किस काम की. इस देश कि परम्पराओ, रीति-रिवाजों, लोक-उत्सव व जीवन शैली को अंधविश्वास मानने वालों से कोई पूछे यह कैसी अंधभक्ति व अंधविश्वास हैं. ईश्वर की भक्ति पर सवाल उठाने वालों जवाब दोगे ! इन्होने तो इंदिरा भक्ति को भी पीछे छोड़ दिया. मेरे विचार से लोकतन्त्र प्रतिदिन पतन की और अग्रसर हैं!
  •  कांग्रेस ने एक आदमी जितनी उम्र पा ली व अब भी समाप्त नहीं हुवी तो यह मानों की वह बहुत शातिर पार्टी हैं ! कब क्या कर बैठे हम सब भौचक्के रह सकते हैं. यह दुसरे चतुर मोनी बाबा का राज हैं. संभल के रहना जरुरी हैं.
  • ये वे लोग थे जो नक्सलवाद का लबादा घर पर रखकर आये थे. विदेशी धन लेकर कम्युनिस्ट भाषा बोलते, कांग्रेस को भ्रष्टाचारी कहते तथा भाजपा व संघ के केडर बल गैर -राजनीति की षडयंत्रकारी राजनीति करते.
  •  मित्रों मैने तो सब पहले ही कहा था की क्या होगा !

Friday, August 3, 2012

जनलोकपाल बिल बनाम अन्ना की राजनीतिक पार्टी

जनलोकपाल बिल बनाम अन्ना की राजनीतिक पार्टी 
टीम अन्ना ने लोकपाल आन्दोलन के जरिये भ्रष्टाचार मिटाने कि विदेशी व कांग्रेसी राजनीति कि चाल के कुचक्र में इस देश कि भोली भाली जनता का जबरदस्त भावनातमक शोषण किया जिसका इतिहास ६५ वर्ष के लोकतन्त्र में नहीं मिलता. खासकर नोजवानों कि नई कोंपलों
के साथ जेसा निर्मम प्रहार किया गया हैं जिसे इतिहास कभी भूला नहीं सकेगा. यह विडम्बना या यथार्त कहिये कि युवा समुदाय गाँधी को वर्षो से कोस रहा था तथा बहुत वर्षो बाद गांधीवाद में इन्ही युवाओं का विश्वाश लौटा था मगर इस आन्दोलन ने एक तरह से इतिहास को दोहराने का काम किया हैं ! दुसरी तरफ करोडों लोग भूख, अकाल, कुपोषण, दंगे, विस्थापन, निर्वासन, शोषण, लूट, भ्रष्टाचार, अन्याय, उत्पीडन, बाढ़, बीमारियों के शिकार हैं. एक अकेले भ्रष्टाचार दूर करने या कम करने के लिये लोकपाल बनाकर सभी समस्याओं का समाधान ढूंढने की राजनीति करने की रणनीति आधुनिक लोकतंत्रवादियों का ऐसा हथियार हैं जिसे साधारण जनता समझ ही नहीं सकी.
मेहनतकश वर्ग (किसान व मजदूर तबका) आजादी के इतने वर्ष गुजर जाने पर अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा हैं. देश में आजादी के समय क्रषि पर लगभग ८०% से अधिक जनसँख्या निर्भर थी तथा उनका राष्ट्रीय आय में योगदान लगभग ६७% के आसपास था. आज लगभग ६६% जनसंख्या क्रषि पर निर्भर हैं तथा उनका राष्टीय आय में योगदान लगभग १२ % के आस पास ही रह गया हैं. क्या हम इस समस्या की गंभीरता को नहीं पहचानते ? क्या यह स्थति केवल भ्रष्टाचार के कारण उत्पन हुवी हैं? क्या इसके पीछे देश की जन-विरोधी सामाजिक-राजनेतिक नीतियाँ व व्यवस्था दोषी नहीं हैं?
टीम अन्ना तुम जवाबदेह कभी नहीं थी. अतः हम तुमसे माफ़ी माँगने को भी नहीं कहते पर यह जरुर कहते हैं कि तुमने विदेशी व कांग्रेस के साथ मिलकर मेहनतकश वर्ग के जो मुद्दे छिन लिये व जो धोखा किया हैं इतिहास उसे कभी माफ़ नहीं करेगा.
विशेष :
  • विदेशी प्रमाण-पत्र कि पात्रता ने टीम अन्ना के सदस्यों का लोकतन्त्र में कद बढ़ाया. उन्ही के सहारे कांग्रेस के पंजे कि मदद करने व फोर्ड के अजेंडे को लागू करने के लिये एक रणनीति के तहत यह टीम मैदान में उतारी गई थी. दोनों ही आका सबकुछ जानते हैं कि साधारण भारतीय जनता कि भावनाओ का मनोवैज्ञानिक तरीके से केसे इस्तेमाल किया जा सकता हैं. यह वास्तविकता भी वो जानते हैं कि सीधे ही कोन राजनीति की केन्द्रीय धुरी में केसे आने देगा !
     इस मेहनतकश जनता को लूटने के लिये मुख्य रूप से पूंजी दो तरह से आती हैं. दोनों के मालिक एक ही हैं. एक दान व सहायतादो के रूप में दुसरी निवेश- ऋण व आवारा के रूप. पहली भूमिका बनाती हैं की दुसरी किस तरह आसानी व अधिक लूट के लिये आये . दोनों ही साथ साथ चलती हैं व हमें पता ही नहीं चलता की जिस पूंजी को हम दान के रूप में स्वीकार करते हैं वह चंद दिनों पहले यंही से लुटी गई थी.
  • भारत  में जंहा आवारा पूंजी को आने में कुछ मुश्किल हुवी तो विदेशी दान पूंजी ने दाता के रक्षक रूप में सरकार की शह पर राजनीति शुरू की जिसे लोकपाल की राजनीति कहा जायेगा ! विदेशी पूंजी व उसकी हितचिन्तक इस सरकार ने भली भांति समझ लिया था की जनता जन-विरोधी सामाजिक-आर्थिक नीतियों के असंतोष से आक्रोशित व आन्दोलित हैं. जनता की आवाज संसद में भी गूंज उठी थी तब उसे भटकाने हेतु जन-विरोधी नीतियों से पैदा हुवे भ्रष्टाचार को एक मुधा बनाकर टीम अन्ना को पकड़ाया था. साथ में उन्होंने ही कहा की आप इसके लिये लोकपाल लाने हेतु संघर्ष करो. इतना तो आप भी जानते हों की भ्रष्टाचार तो पूँजीवाद के इंजन को चलाने का ग्रीस हैं !
  •  वर्तमान घोटाले व भ्रष्टाचार के कांड जन-विरोधी सामाजिक-आर्थिक नीतियों से पैदा हुवा था उससे मेहनतकश जनता का ध्यान हटाने के लिये लोकपाल को मुद्दा बनाया गया. अब जब अनशन समाप्त हुवा तो एक मात्र वामपंथियों ने इस आन्दोलन कि राजनीतिक परिणिति पर सवाल उठाये व कहा कि जब पार्टी ही बनानी थी तो इतने दिनों तक गैर-राजनीति कि राजनीति क्यों की ? सचमुच वे बधाई के पात्र हैं जो अब तो सच कहने लगे ! वैसे तो लोकतन्त्र में कोई भी राजनीतिक दल बना सकता हैं मगर टीम अन्ना तो राजनीति को ही गालियाँ दे रही थी !

Tuesday, July 31, 2012

ब्रह्मांड और विकसित देश

ब्रह्मांड और विकसित देश
देखा जाया तो बहुत सारे सज्जन तो इस विषय को जानकर अपने अपने निजी या सामुहिक निष्कर्ष पर पहुँच ही चुके हैं. वैसे तो 'शायद' पहले से ही ईश्वर के अस्तित्व कोनकारने वाले ये भौतिकवादी, बुद्धिजीवी, चिंतक, लेखक, पत्रकार व विश्लेषक अब तो बड़ी प्रमाणिकता के साथ कह रहें हैं कि वह ईश्वर की किसी व्यक्तिगत कल्पना व अस्तित्वको कैसे स्वीकार कर सकते हैं! यह ब्रह्मांड यह सृष्टि किसी ईश्वर की रचना नहीं बल्कि फिजिक्स के नियमों से उत्पन्न हुई तथा उसी के अनुरूप क्रियाशील हैं. ये वो ही लोग हैं जो समझदार होकर भी ईश्वर को व्यक्ति के रूप मे देखते हैं तथा उसे सुप्रीम न्यायाधीश के रूप मे स्वर्ण सिंहासन पर बैठा मानते हैं.
दुसरी तरफ ये ही फिजिक्स के नियमों के प्रचारक होते हुए अनेक पुस्तके गोरखनाथ, कबीर, मीरा, रेदास, सूरदास, तुकाराम, अरोबिन्दो आदि अनेकों के कर्म मे ईश्वर का रूप देखकर उनकी जनमानस को देन तथा ऊनके उच्च कोटि के योगदान को प्रतिपादित करते हैं.
अब स्वर्ग जेसे देश स्विटज़रलेंड मे अरबों डॉलर के खर्च पर हो रहें कल्याणकारी व बीमारियाँ मिटाने को तत्पर एक शोध की उपलब्धि पर फूले नहीं समा रहें.आज के समय मे लोकतांत्रिक पूंजीपति देश बिना उनके आर्थिक हितों के इतना बड़ा निवेश कर ही नहीं सकते. इन्हें क्या मतलब हैं कि ब्रह्मांड का किस सीमा पर अंत हैं तथा
उसके बाद के नियम भी क्या क्या हैं?